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Mountains Or Beaches?

 


Beach Or Mountains? - अब ये सवाल सिर्फ एक ट्रैवल चॉइस नहीं बल्कि किसी गहरे subconscious का mirror सा लगने लगा है। कुछ वैसा ही जैसे जब कोई अचानक पूछ ले, “सुनो, तुम्हारा Headphone कहाँ है?” और तुम्हारे पास हो सिर्फ़ एक पुरानी-सी Handsfree, जिसकी तारें उलझी हैं, आवाज़ हल्की है लेकिन उसमें कुछ अधूरे गाने अब भी साथ बहते हैं। 

फिर सोचता हूँ अगर Sigmund Freud होता तो कहता “ये Headphone तुम्हारी ‘ideal self’ है जिसे तुम ढूंढते हो लगातार, और Handsfree? तुम्हारा ‘compromise formation’ जहाँ तुम्हारा मन कहता है, “चलो, फिलहाल इससे काम चला लेते हैं।” लेकिन फिर, एक दिन Headphone मिल भी जाए - तो क्या वही सुकून आएगा? या फिर अगर Yuval Noah Harari की तरह सोचूँ तो ये समझ में आएगा कि इंसान की सबसे बड़ी भूल शायद ये है कि वो हमेशा किसी ‘better version’ की तलाश में रहता है और इस चक्कर में ही वो उसे जी नहीं पाता। तो क्या पहाड़ चुनना सचमुच सुकून है या समुंदर को देखने की तलब बस एक और ‘dopamine hit’? 

क्या Headphone ही अंत है या Handsfree के साथ बिताए पलों में भी संगीत उतना ही सच था? लेकिन शायद असली सवाल ये है - क्या हमें चुनना ज़रूरी है? या फिर बिना चुने उन सबके साथ जीना, जो हमारे पास है और जो नहीं भी है वो भी अपनाना।🌻


(लिखी जा रही अगली किताब का हिस्सा)



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