सफर में अक्सर कुछ सवाल साथ चलने लगते हैं बिना बुलाए, बिना जवाबों की उम्मीद के। जैसे ये पहाड़, जिन पर जब कभी किसी ने पहली बार कदम रखा होगा… क्या उसे मालूम था कि गुलाबों की खुशबू का रंग लाल होता है?
हवा यहां कुछ और ही कहती है। रास्ते पथरीले हैं, लेकिन हर मोड़ पर कोई ना कोई नज़ारा आंखों में कुछ एहसास छोड़ जाता है। एक तितली या कहो, फुलपाखरू (शब्द जो हाल ही में सीखा) अचानक सामने आ जाती है, जैसे उसी के पीछे-पीछे चल रहा हो मन। वो उड़ती है तो लगता है जैसे वक़्त थम गया हो, जैसे ऊंचाई की परिभाषा बदल गई हो, और जब वो फूलपाखरु पास हो तो शब्द शांत रहते हैं मगर मन और आँखें बिल्कुल नहीं।
यही तो हासिल है इन यात्राओं का, चलते रहना, महसूस करते जाना, और भीतर कहीं कुछ छोड़ते जाना। साल गुज़रेंगे, शायद सब कुछ यहीं लौट आए। और फिर किसी दिन, किसी शाम की हल्की ठंड में, फूलपाखरु के साथ की तलाश में चुपचाप कूंच कर जाना होगा… अगली किसी यात्रा के लिए। 🌻
-(लिखी जा रही कहानी का हिस्सा)-
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