"जिनकी रूहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं..."
"देख ना बिब्बन, वो पतंग... वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे..मेरी ही तरह कटी हुई..नामुराद..कम्बख़्त.." - नरगिस (पाकीज़ा)
दादी की पसंदीदा फिल्म हुआ करती थी, बचपन में ना जाने कितनी बार दिखाई गयी (पहले) बाद में खुद से देखी और हर बार नया पाया बिलकुल रफ़ी साहब के गीतों की तरह।
ये एक Frame है जो दिल में छपा हुआ है की कभी किसी दिन इस frame को tribute दूंगा अपने किसी काम में। ये frame इतना मामूली होने के बावजूद इतना खूबसूरत है की बयान कर पाना मुश्किल है। एक तरफ नरगिस (मीना कुमारी) है और दूसरी तरफ एक कटी पतंग जो ना तो आसमान की है और ना ही ज़मीन की.. जो शायद कुछ समय के लिए बादलों, हवाओं, पंछियों के बीच गोते खा रही थी लेकिन अभी वो एक पेड़ पर है, ज़िन्दगी यही है..आप आसमान चाहते हैं , ज़मीन चाहते हैं या फिर कुछ और?
यूँ तो फिल्म के तमाम ऐसे सीन्स हैं जो बेहद खूबसूरत हैं (कुछ कमियां भी हैं - वो तो हर किसी में होती हैं), उनमे से एक और मेरा पसंदीदा है जब सलीम अहमद (राजकुमार) नरगिस (मीना कुमारी) को अपने घर ले जाता है और अपने घर की सभी औरतों से ना सिर्फ मिलवाता है बल्कि नरगिस को एक अपनापन महसूस करवाता है जो नरगिस के लिए बेहद खूबसूरत चीज़ों में से एक होता है..अगर कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका को अपने घर ले जाकर अपने घर की महिलाओं से मिलवाता है तो ये सबसे खूबसूरत बात है जो शायद कहीं ना कहीं ये दर्शाती है की उसकी चाहत सिर्फ चाहत नहीं बल्कि उससे कहीं ज़्यादा है।
"ये चराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते जलते.."
फिल्म : पाकीज़ा
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