फ़रेब के अहंकार में अंधी होकर
ख़त जला दिए सारे मेरे
क्या जलाईं वो चादरें भी
जिनमें लिपट कर हम सोते थे पर आज कोई और है?
क्या जलाईं वो किताबें मेरी
जिनमें तुम पर लिखे मेरे शेर हैं?
जला दी होगी वो छुअन भी मेरे हाथों की
क्या जला पाईं वो बातें रातों की?
इन संग अपनी हवस के बाद में
क्या जला पाईं मेरी खुशबू भी?
– राहुल अभुआ
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