मैं फिर से एक यात्रा पर निकल गया हूं
खुद को तलाशने की यात्रा पर
यहां ऊपर इन बादलों में होने का आभास
हमेशा की तरह उलझा हुआ-सा है
एक यात्रा जो मैं अपने अंदर कर रहा हूं
उसके अनुसार मुझे यहीं होना चाहिए
ऊपर इन बादलों में,
जहां से सबकुछ बराबर-सा दिखने लगता है
रिक्शा भी उतना ही बड़ा प्रतीत होता है
जितनी कोई महंगी कार,
रिक्शा खींचने वाला वो आदमी भी वैसा ही प्रतीत होता है
जैसा कोई नेता
लकड़ियां घिसता वो कारीगर हो या कोई बड़ा अफसर
यहां से तो सब ही एक समान प्रतीत होते हैं
शायद यही वजह है कि ईश्वर को लगता है
हम मानव आज भी उसके बनाए उसूलों पर चल रहे हैं
लेकिन सतही सच्चाई कुछ और है
यहां ऊपर होना ईश्वर हो जाना बिल्कुल नहीं है
पर ये आभास ये एक अनूठा एहसास
आपको बतलाता है की
आडंबरों से आगे भी एक जहां है,
और जब ये बात हम समझ सकेंगे
तब खुद को जानने के
एक कदम और पास आ जायेंगे
तबतक यात्रा जारी रहेगी..
- राहुल अभुआ 'ज़फर'
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