उसके बदन की खुशबू से महकती थी शामें मेरी
उसके बदन पर मैंने अपना नाम लिखा देखा है
तुम जो करते हो दावा उसको चाहने का
तुमने उसकी खिड़की में कभी चाँद देखा है
उसकी महफ़िल से गया था मैं जब उठकर
सारी महफ़िल ने उसके लफ्ज़ो में मेरा निशा देखा है
मेहँदी लगाने की इक अदद आदत भी छूट गयी उसकी
रंगो से बैर हो उसे, ये मैंने पहली दफा देखा है
मौसम की सौंधी महक से खिल उठी है गली उसकी
आज उसकी छत पे इक फूल खिला देखा है
उसको रश्क़ रहा मुझसे की क्यूँ हूँ मैं ज़िन्दीक (नास्तिक)
उसे खबर कहाँ थी कि मैंने उसमे खुदा देखा है
तुम कभी मिलो तो ये पूछना उससे
'ज़फर' अब इश्तेहारों में है, क्या तुमने वो अख़बार देखा है।।
- © राहुल अभुआ 'ज़फर'
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